Tararam
Gautam
13
December at 22:45 · Edited
मैं
मेघों के संघर्ष और स्वाभिमान
आन्दोलन को कई नजरियों से
देखता हूँ और जानने की कोशिश
भी करता हूँ। विगत इतिहास के
कुछ अनछुए पहलुओं पर भी एक नजर
डालने का दुसाहस भी करता हूँ
यह जानते हुए कि इससे मुझे कोई
व्यक्तिगत लाभ या प्रेय या
श्रेय भी नहीं मिलने का सिवाय
आलोचना के। फिर भी पड़ताल करने
की अपनी जिज्ञाषा के अधीन कुछ
न कुछ कुरेदता रहता हूँ।
समग्र
भारत में मेघों का आन्दोलन
विगत में कैसा रहा,
इसकी
अत्यल्प जानकारी है। परन्तु
जो कुछ है उसके आधार पर मैं यह
दावे के साथ कह सकता हूँ कि
मेघों के आन्दोलन को राज नैतिक
लोगों ने बड़ी होशियारी से
भाई-बिरादरी
बन कर के तोडा या तहस नहस किया।
उस समय उनके पास ज्ञान के या
सूचना के इतने साधन नहीं थे
कि वे इन भ्रमित करने वालों
को पहचान सके और अपना भविष्य
सुरक्षित कर सके-
कई
कारणों के साथ जातिवादी-सामंती
समाज की मजबूत बेड़िया इसमे
प्रमुख थी। उनकी सोच उस समाज
की व्यूह रचना से बाहर की हो
ही नहीं सकती थी।
जब
बेगारी प्रथा के विरोध में
देश व्यापी आन्दोलन चला,
जब
गंदे धंधे छोड़ने का देश व्यापी
आन्दोलन चला और जब पृथक निर्वाचन
हेतु आन्दोलन चला तो इन तीनों
पर यह समाज बंटा हुआ था। ज्यादातर
लोग बेगारी के विरुद्ध संघर्ष
रत हुए। कई लोग गंदे धंधे छोड़ने
के आन्दोलन से जुड़े और कुछ
लोगों ने पृथक निर्वाचन की
आवाज उठाई। ये तीनों तरह के
आन्दोलन मेघो में आजादी से
पहले अपनी पैठ बना चुके थे।
कई लोग आगे आये। कुछ लोग डटे
रहे बाकि लोग छद्म जाल में फंस
गए। इन में से ही कई गंदे धंधो
को करने की वकालत करते हुए
राजनैतिक पार्टियों के चहेते
बने और विधायक या सांसद बने।
इन में से ही कई लोग बेगारी को
रोजगार से जोड़ कर महिमा मंडित
करने लगे और विधायक और सांसद
बने। इन में से ही कई लोग पृथक
निर्वाचन के विरोध में उतरे
और अपनी राजनैतिक रोटियां
सेकी। यह बात जो कही जा रही है
उसे आप अपने आस पास के लोगों
के विगत काल को टटोल कर जान
सकते हो। 1932
से
1950 या
1952 और
उसके बाद 1952
से
2000 तक
के जो आपके समाज के विधायक या
सांसद रहे है,
उनके
कोई लिखित दस्तावेज,
व्यक्तव्य
या अखबारों में छपी खबरे हो
तो उसको अनुसंधेय करके आप इस
बात की सच्चाई का पता लगा सकते
हो। समाज के इस विगत को जाने
वगैर आप राज नैतिक सूझ बुझ
पैदा नहीं कर सकते। उनमे उर्जा
एवं जोश जरुर था। साहस और
स्वाभिमान भी था पर वह सब या
तो संस्कृतिकरण की शरणगाह था
या अभिशिप्त राज नैतिक
पिच्छ्लगुपन। आज भी वह कमो
वेश वर्त्तमान है। इसलिए ये
समाज सामूहिक मुक्ति में
असमर्थ रहा।-----
--आजादी
से पहले मारवाड़ के अछूत वर्ग
में जबरदस्त जाग्रति थी। उसे
किसी भी स्तर पर न तो नकारा जा
सकता है और न कमतर करके आँका
जा सकता है। सामाजिक क्षेत्र
और राजनैतिक क्षेत्र-
दोनों
ही क्षेत्रों में इसका नेतृत्व
मेघवालों के आगीवान समाज
सुधारको और साधु-संतो
के हाथों में था। यह protest
movement पुरे
प्रदेश में अपनी गहरी उपसथिति
दर्ज करा चूका था। डॉ आंबेडकर
के आन्दोलन की हवा ने ही उनमें
उर्जा का संचार किया था।
मेघवालों के नेतृत्व में अछूत
वर्ग हिन्दुओं के शोषण के
विरुद्ध उठ खड़ा हुआ था। वह
समाज पूरी तरह से बागी हो गया।
उसने अपने को डॉ आंबेडकर की
शिक्षाओ का अनुगामी बनाया।
मरे जानवरों को उठाना,
मरे
जानवरों का मांस खाना,
सवर्णों
के घर की रोटियां खाना,
जानवरों
की खाल उतारना,
भेंट-बेगार
नहीं करना,
चिट्ठी-पत्री
नहीं पहुँचाना,
सवर्णों
की मवेशी और बहिन-बेटी
को आणे-टाणे
में नहीं लाना-लेजाना
आदि उनके प्रतिकार या विरोध
के मुख्य मुद्दे थे। उनका यह
इतिहास लिखा नहीं गया। हजारों
कठिनाईयों के बावजूद भी उन्होंने
इन कार्यो का बहिस्कार या
प्रतिकार किया। मेघवालों के
स्वाव्लाम्बन और संगठन को
लेकर बाकी सवर्णी समाज सकपका
गया था। इसके कई अच्छे और बुरे
परिणाम हुए। कई तरह के राजनैतिक
और सामाजिक हथकंडें अजमाए
गए। अकालों की भयंकर विपदाओं
में उनके पास खाने को भोजन और
तन ढकने को वस्त्र तक नही थे।
सिर ढकने को छत नहीं तो अनाज
पैदा करने को जमीन का टुकड़ा
तक नही था। वे इस विरोध आन्दोलन
से होने वाली आर्थिक हानि से
व्आकिफ थे।
उन्होंने
अपने समाज में होने वाले ओसर-
मोसर
और अन्य खर्चों पर प्रतिबन्ध
लगाकर इसकी भरपाई करने की
कोसिस की। भेंट-बेगारी,
फडके
और त्योहारी की जगह मेहनत और
मजदूरी पर जोर दिया। लेकिन
कुछ लोग और कुछ जातियां इससे
दूर रहे। धीरे-धीरे
इस पर कांग्रेसी वर्चस्व हावी
हो गया और वह आन्दोलन इतिहास
की खाई में दफ़न हो गया।
लोग
वापस ओसर-मोसर
और दिखावे में आ गए। इनके धर्म
की नब्ज को पकड़कर प्रतिक्रियावाद
हावी हो गया। उनका उत्थान बंद
होकर आपसी खिचाव में आ गया,
जिसे
मारवाड़ में "खुली-बंदी"
के
नाम से जाना गया। इन बातों को
लेकर इनके अगुओं को और इस समाज
को सताने के लिए और आपसी विघटन
करने के लिए दुष्ट प्रयास हुए।
खुद को ऊँचा और सभ्य समझने
वाले जड़ बुद्धि लोगों ने जान-बूझ
कर उन्हें पीड़ा पहुचाई। कुछ
विभीषण और हनुमान जैसे
स्वामिभक्तों ने इस समाज की
एकता को तहस-नहस
किया। नाम और काम की भूख कांग्रेस
की ही देन है।
आज
जो स्थिति है वह इन परिस्थितियों
की उपज है। उस समय की हिन्दू
वादी राजनैतिक पार्टियों और
धार्मिक पुनरुत्थान वादी
संगठनों ने मेघों को धर्म और
राजनीती के नाम पर पूरी तरह
से भ्रमित किया। भ्रमित करने
वाली जमात में मेघों में से
ही ऐसे साधू-संतों
को इन राज नैतिक पार्टियों
ने वृहदहस्त प्रदान किया। जो
बुजुर्ग या जवान समाज की हेय
दशा को लेकर चिंतित थे व कार्य
शील थे। उन्हें गंदे धंधों
से होने वाले मुनाफे और बेगारी
से मिलाने वाले रोजगार और
सम्मान आदि को धार्मिक
कथा-किंवदंतियों
से महिमा मंडित करते हुए सह
मत किया और मेघों के विरुद्ध
ही मेघों को खड़ा कर दिया। वे
लोग जो बेगारी,
छुआ
छूत और पृथक मताधिकार या
प्रतिनिधितित्व के लिए संघर्ष
रत थे। अलग थलग पड़ते गए और धीरे
धीरे वह आन्दोलन मृत हो गया।
राज नीति में बेगार करने वाले,
गंदे
धंधों को महिमा मंडित करने
वाले और प्रतिनिधित्व की जगह
पैरोकारी करने वाले मेघो का
वजूद बढ़ने लगा। वे राज सत्ता
और राजनैतिक पार्टियों के
संगठन में भी पदासीन हुए पर
उनकी सोच में वह दृष्टिकोण
नहीं था अतः वे कोई कारगर कार्य
नहीं कर पाए।
अगर
उस समय जब बेगारी पृथा के
विरुद्ध हमारा आंदोलन था,जब
गंदे धंधे छोड़ने का आंदोलन
था, जब
पृथक निर्वाचन के लिए हम झगड़
रहे थे । ये लोग साथ होते तो
आज ये स्थितियां नहीं होती।
इन लोगों ने या जिस पृष्ठ भूमि
से ये आते है उसने हेय धंधों
को महिमा मंडित किया। बेगारी
को अच्छा बताया और पृथक निर्वाचन
की खिलाफत की। जो इनके चंगुल
में रहे भलेई वो आर्थिक रूप
से संपन्न हो गए पर आपके समाज
को प्रगति से बहुत पीछे धकेल
दिया। जिसका खामियाजा आज की
पीढ़ी भुगत रही है । इसलिए इन
बातों को रहंने दीजिये। नयी
पीढ़ी को उनके विचारों का गुलाम
मत बनाइये और नायक पूजा की ओर
मत मोड़िये। आज पढ़ा लिखा वर्ग
नयी सोच के साथ आगे आ रहा है।
उसे क्षुद्र राजनिति की घेरा
बंधी में मत बंधने दीजिये।
हमारे
यहाँ एक लोकोक्ति है-
"जिण
री धन धरती,
कबुहु
ना राखिये संग ।
जे
राखिये संग तो,
क'र
राखिये अपंग ।।"
इस
पर गहराई से विचार करे। स्वतः
समझ में आ जायेगा। जिसकी धन
और धरती है,
उन्हें
कभी साथ मत रखिये। अगर रखना
ही है तो उन्हें अपंग बनाकर
रखिये।----
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Seen
by 26
Rattan
Gottra, Raj Bose, Ajay Bhagat and 3 others like this.
Tararam
Gautam ऐसे
लोग निः संदेह मेरी घृणा के
पात्र है,
भलेई
वो किसी भी सर्वोच्च स्तर पर
आसीन हो। वह इस लिए कि मैं उस
जमात से आता हूँ जिसने बेगारी
का पुर जोर विरोध किया,
जिसने
गंदे धंधों को छोड़ने का आन्दोलन
चलाया और पृथक निर्वाचन के
लिए रंजिसे पाल ली। जो संस्कृतिकरण
लिए हुए छद्म धार्मिक आडम्बरो
से दूर रहे। जो यही मानकर चलते
रहे की भीड़ की बजाय दो आदमी ही
भले जो इरादों के पक्के या
मजबूत हो। आज नहीं तो कल,
विजय
हमारी ही होगी---.
13
December at 23:04 · Like · 2
Tararam
Gautam अगर
उस समय जब बेगारी पृथा के
विरुद्ध हमारा आंदोलन था,जब
गंदे धंधे छोड़ने का आंदोलन
था, जब
पृथक निर्वाचन के लिए हम झगड़
रहे थे । ये लोग साथ होते तो
आज ये स्थितियां नहीं होती।
इन लोगों ने या जिस पृष्ठ भूमि
से ये आते है उसने हेय धंधों
को महिमा मंडित किया। बेगारी
को अच्छा बताया और पृथक निर्वाचन
की खिलाफत की। जो इनके चंगुल
में रहे भलेई वो आर्थिक रूप
से संपन्न हो गए पर आपके समाज
को प्रगति से बहुत पीछे धकेल
दिया। जिसका खामियाजा आज की
पीढ़ी भुगत रही है । इसलिए इन
बातों को रहंने दीजिये। नयी
पीढ़ी को उनके विचारों का गुलाम
मत बनाइये और नायक पूजा की ओर
मत मोड़िये। आज पढ़ा लिखा वर्ग
नयी सोच के साथ आगे आ रहा है।
उसे क्षुद्र राजनिति की घेरा
बंधी में मत बंधने दीजिये।
13
December at 23:23 · Like · 2
Bharat
Bhushan Tararam Gautam जी,
हमारी
पिछली पीढ़ी और हमारी अपनी
आधी पीढ़ी मनुस्मृति को धार्मिक
ग्रंथ मानती रही.
रोजगार
और व्यक्ति की योग्यता को उसी
के मानदंडों से नापती रही बिना
जाने कि वह कोई धर्म नहीं था
बल्कि संविधान था जो श्रमिक
वर्ग को गुलाम और हमेशा के लिए
सस्ता श्रम बनाए रखने का नियम
और कानून था.
आपसे
सहमत हूँ.
हमारे
यहाँ भी सामाजिक उत्थान के
लिये आंदोलन हुए लेकिन वे अन्य
द्वारा सामाजिक बहिष्कार और
कुछ हमारे अपने ही लोगों के
स्वार्थ की भेंट चढ़ गए.
यह
सच है कि बहुत कुछ जो हमारे
समाज में क्रांतिकारी था वह
हिंदू मेन स्ट्रीम संस्कृति
के चिकने धरातल पर फिसल कर फिर
उसी गढ्ढे में गिरा.
आगे
चल कर इससे हुई लाभ-हानि
का मूल्यांकन होगा.
आरएसएस
की वर्तनाम सरकार और उनकी
गतिविधियों से लगता है कि केवल
मेघ ही नहीं बल्कि सभी एससी-एसटी
के स्वार्थी नेता तत्त्व उस
जाल में आ गए हैं.
ब्राह्मणों
का यह संघ जिस संस्कृति की बात
करता है उसका इन एससी-एसटी
की सभ्यता से कुछ लेना-देना
नहीं है.
अधिक
नहीं कहना चाहता.
हिंसक
कौमें उन कौमों को कभी पूरी
तरह समाप्त नहीं करतीं न ही
उन्हें बग़लगीर होने देती
हैं जो हिंसा का उत्तर प्रतिहिंसा
से देना भूल जाती हैं.
ऐसी
कौमों को घर के बाहर बिठाए रख
कर अपनी जीत का इतिहास जीवित
रखा जाता है.
आज
की परिस्थितियों में आप
''प्रतिहिंसा''
शब्द
की जगह ''सशक्त
सामूहिक प्रतिरोध''
शब्द
रख सकते हैं.
Rattan
Gottra, K K Singh Genwa, Satish Bhagat, Er Mohinder Mamualiya, Annie
Bhagat Damathia, Shaku Meghwal, Pritam Bhagat, Meenu Samotra, Ajay
Bhagat,
14
December at 08:47 · Like · 2
Rattan
Gottra The fact is that Megh society due to deep ignorance that they
have been Sanskritised, has till now made worthies that actually are
not. And these worthies themselves lacked true education, remained
self-seeking 'True Bhaktas' of those who Sanskritised them. If
recently, there are some well educated wise gems, they have been
engaged by the government in top civil services & their hands are
either bound in the code of conduct, or they lack time due to their
business in respective professions or the personal problems faced by
them. These circumstances compel us to wait for upcoming newly
educated generation of individuals to emerge on the scene. Meanwhile,
we the old or seniors should continue to spread awareness.
14
December at 10:18 · Unlike · 3
Tararam
Gautam --आजादी
से पहले मारवाड़ के अछूत वर्ग
में जबरदस्त जाग्रति थी। उसे
किसी भी स्तर पर न तो नकारा जा
सकता है और न कमतर करके आँका
जा सकता है। सामाजिक क्षेत्र
और राजनैतिक क्षेत्र-
दोनों
ही क्षेत्रों में इसका नेतृत्व
मेघवालों के आगीवान समाज
सुधारको और साधु-संतो
के हाथों में था। यह protest
movement पुरे
प्रदेश में अपनी गहरी उपसथिति
दर्ज करा चूका था। डॉ आंबेडकर
के आन्दोलन की हवा ने ही उनमें
उर्जा का संचार किया था।
मेघवालों के नेतृत्व में अछूत
वर्ग हिन्दुओं के शोषण के
विरुद्ध उठ खड़ा हुआ था। वह
समाज पूरी तरह से बागी हो गया।
उसने अपने को डॉ आंबेडकर की
शिक्षाओ का अनुगामी बनाया।
मरे जानवरों को उठाना,
मरे
जानवरों का मांस खाना,
सवर्णों
के घर की रोटियां खाना,
जानवरों
की खाल उतारना,
भेंट-बेगार
नहीं करना,
चिट्ठी-पत्री
नहीं पहुँचाना,
सवर्णों
की मवेशी और बहिन-बेटी
को आणे-टाणे
में नहीं लाना-लेजाना
आदि उनके प्रतिकार या विरोध
के मुख्य मुद्दे थे। उनका यह
इतिहास लिखा नहीं गया। हजारों
कठिनाईयों के बावजूद भी उन्होंने
इन कार्यो का बहिस्कार या
प्रतिकार किया। मेघवालों के
स्वाव्लाम्बन और संगठन को
लेकर बाकी सवर्णी समाज सकपका
गया था। इसके कई अच्छे और बुरे
परिणाम हुए। कई तरह के राजनैतिक
और सामाजिक हथकंडें अजमाए
गए। अकालों की भयंकर विपदाओं
में उनके पास खाने को भोजन और
तन ढकने को वस्त्र तक नही थे।
सिर ढकने को छत नहीं तो अनाज
पैदा करने को जमीन का टुकड़ा
तक नही था। वे इस विरोध आन्दोलन
से होने वाली आर्थिक हानि से
व्आकिफ थे।
उन्होंने
अपने समाज में होने वाले ओसर-
मोसर
और अन्य खर्चों पर प्रतिबन्ध
लगाकर इसकी भरपाई करने की
कोसिस की। भेंट-बेगारी,
फडके
और त्योहारी की जगह मेहनत और
मजदूरी पर जोर दिया। लेकिन
कुछ लोग और कुछ जातियां इससे
दूर रहे। धीरे-धीरे
इस पर कांग्रेसी वर्चस्व हावी
हो गया और वह आन्दोलन इतिहास
की खाई में दफ़न हो गया।
लोग
वापस ओसर-मोसर
और दिखावे में आ गए। इनके धर्म
की नब्ज को पकड़कर प्रतिक्रियावाद
हावी हो गया। उनका उत्थान बंद
होकर आपसी खिचाव में आ गया,
जिसे
मारवाड़ में "खुली-बंदी"
के
नाम से जाना गया। इन बातों को
लेकर इनके अगुओं को और इस समाज
को सताने के लिए और आपसी विघटन
करने के लिए दुष्ट प्रयास हुए।
खुद को ऊँचा और सभ्य समझने
वाले जड़ बुद्धि लोगों ने जान-बूझ
कर उन्हें पीड़ा पहुचाई। कुछ
विभीषण और हनुमान जैसे
स्वामिभक्तों ने इस समाज की
एकता को तहस-नहस
किया। नाम और काम की भूख कांग्रेस
की ही देन है।
आज
जो स्थिति है वह इन परिस्थितियों
की उपज है। उस समय की हिन्दू
वादी राजनैतिक पार्टियों और
धार्मिक पुनरुत्थान वादी
संगठनों ने मेघों को धर्म और
राजनीती के नाम पर पूरी तरह
से भ्रमित किया। भ्रमित करने
वाली जमात में मेघों में से
ही ऐसे साधू-संतों
को इन राज नैतिक पार्टियों
ने वृहदहस्त प्रदान किया। जो
बुजुर्ग या जवान समाज की हेय
दशा को लेकर चिंतित थे व कार्य
शील थे। उन्हें गंदे धंधों
से होने वाले मुनाफे और बेगारी
से मिलाने वाले रोजगार और
सम्मान आदि को धार्मिक
कथा-किंवदंतियों
से महिमा मंडित करते हुए सह
मत किया और मेघों के विरुद्ध
ही मेघों को खड़ा कर दिया। वे
लोग जो बेगारी,
छुआ
छूत और पृथक मताधिकार या
प्रतिनिधितित्व के लिए संघर्ष
रत थे। अलग थलग पड़ते गए और धीरे
धीरे वह आन्दोलन मृत हो गया।
राज नीति में बेगार करने वाले,
गंदे
धंधों को महिमा मंडित करने
वाले और प्रतिनिधित्व की जगह
पैरोकारी करने वाले मेघो का
वजूद बढ़ने लगा। वे राज सत्ता
और राजनैतिक पार्टियों के
संगठन में भी पदासीन हुए पर
उनकी सोच में वह दृष्टिकोण
नहीं था अतः वे कोई कारगर कार्य
नहीं कर पाए।
14
December at 11:51 · Edited · Unlike · 3
Ajay
Bhagat मैं
बहुत आभारी हु आप सबका और फेसबुक
का जिसके कारन मुझे नयी नयी
जानकारी और अपना सही इतिहास
जानने को मिला। आप सभी का बहुत
बहुत धन्यवाद
14
December at 10:50 · Unlike · 3
Bharat
Bhushan Ashok Bhagat ji
14
December at 15:28 · Like
Tararam
Gautam Bharat Bhushanhi हमारे
यहाँ एक लोकोक्ति है-
"जिण
री धन धरती,
कबुहु
ना राखिये संग ।
जे
राखिये संग तो क'र
राखिये अपंग ।।"
इस
पर गहराई से विचार करे। स्वतः
समझ में आ जायेगा। जिसकी धन
और धरती है,
उन्हें
कभी साथ मत रखिये। अगर रखना
ही है तो उन्हें अपंग बनाकर
रखिये।----
14
December at 16:17 · Unlike · 1
Tararam
Gautam This indicate root cause of slavery of Meghs. As I told they
were ancient rulers of this land. After defeat they were paralyzed by
the various penal codes like smritis and puranas. Knowing all these
still they are searching shelter in these poisonous shastra is
nothing but enslaving the coming generations, knowingly or
unknownigly .
14
December at 16:42 · Like · 1
Rattan
Gottra They are still mostly ignorant about all that because of the
very strong dose of 'SANSKRITIZATION'. To neutralize the effect of
that dose, a very strong dose of true education is required.
14
December at 16:51 · Like · 2
Tararam
Gautam They do not know what is sanskritisation. And I also do not
feel appropriate to use the word given by sriniwasan. It is not
sanskritisation but purely brahmanization. The word sanskritisation
was used very cleverly by s niwasan to defeat the core of caste
struggles. And it was emphasized and popularized by a group of ruling
intellectuals. When Jat demand for reservation, when Gurjar demand
for reservation than it is immitation but not upward but backward,
how it can be called sanskritization as conceptualized by s
sriniwasan. If it is Sanskrit Dharma than why not be used a term
Brahmanisation.?
14
December at 17:01 · Edited · Like · 1
Tararam
Gautam It also include in its meanings that these lower castes are
uncivilized and sanskritization is a process of civilization, which I
openly reject. Because in my opinion lower caste have had their
civilization far superior than those of Sanskrit Dharma ie
Brahmanical religion. Their aticates and manners are more Democratic,
pro social and more giving ground to rise a free society than those
of so called close society based on brahmanical principalities.
14
December at 17:06 · Like · 1
Rattan
Gottra What I mean by 'Sanskritization' is actually 'Brahmanization'
contained in their Sanskrit books that are most dear to them, but are
otherwise full of poison against the depressed classes.
14
December at 17:20 · Like · 2
Tararam
Gautam अगर
किसी के पास अपने इलाके के ऐसे
आन्दोलनों की जानकारी हो तो
कृपया यहाँ साझा करे। it
will enrich your history and will give a lamp to new generation.
Please do share.
14
December at 19:42 · Like · 2
Bharat
Bhushan
Write
a commen